कल सुबह जब बारिश ने आकर खिड़की पर
दस्तक दी, थी
नींद में था मैं --बाहर अभी अँधेरा था!
ये तो कोई वक्त नहीं था, उठ कर उससे मिलने का!
मैंने पर्दा खींच दिया--
गीला गीला इक हवा का झोंका उसने
फूँका मेरे मुँह पर, लेकिन--
मेरी 'सेन्स आफ ह्युमर' भी कुछ नींद में थी--
मैंने उठकर ज़ोर से खिड़की के पट
उस पर भेड़ दिए--
और करवट लेकर फिर बिस्तर में डूब गया!
शयद बुरा लगा था उसको--
गुस्से में खिड़की के काँच पे
हत्थड़ मार के लौट गयी वह, दोबारा फिर
आयी नहीं -- --
खिड़की पर वह चटखा काँच अभी बाकी है!!
गुलज़ार साहिब